गाजियाबाद
मेरा जन्म ब्राह्मण कुल के खेतीहर समाज त्यागी जाति में हुआ। मेरे सभी बच्चों की शादियां त्यागी समाज में हुई है। भारत के समाज में सदा से जातियां बहुत महत्वपूर्ण रही है। महाकवि तुलसीदास ने भी कहा है ‘निज गोत्र देख सुख होई’।
जाति बहुत कुछ है किंतु जाती सब कुछ नहीं है। जाति जन्म लेते ही हमें एक समाज प्रदान करती है किंतु जाती हमें समाज की सीमाओं में भी बांधने का काम करती है। जाति के संकुचित दायरे से बाहर झांक कर देखिए तो दुनिया बहुत विशाल नजर आएगी।
मैं आपको अपना अनुभव बताता हूं।
जैसा कि आप सभी मेरे मित्र जानते हैं। पिछले साल मैं कुछ कानूनी संकटों से गुजरता रहा। बेहद तनावपूर्ण स्थिति थी कि उन्हें दिनों एक वैश्य समाज के मित्र का फोन आया। उन्होंने कहा कि जिन अधिकारियों से आपका टकराव हो रहा है या वास्ता है उनसे हमारे पार्टनर के मधुर संबंध हैं। मित्रता बहुत गहरी नहीं थी। बस सामान्य जान पहचान थी। उनके पार्टनर यादव जी ने स्वयं फोन करके कहा कि मैं आपकी हर संभव सहायता करूंगा। सच बताऊं तो एक बार मुझे लगा की भला यह अजनबी यादव जी मेरी सहायता क्यों करने लगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि अन्य बहुत से प्रस्तावों की तरह है यह भी कोई दलाली का मामला हो। किंतु यह मेरी गलतफहमी साबित हुई और उन्होंने आगे बढ़कर बिना किसी लालच के अपने संबंधों का इस्तेमाल करके मेरी भरपूर सहायता की।
बांदा के एक अधिकारी जो जाति से शर्मा है उनके सहयोग को क्या में जिंदगी भर भूल पाऊंगा।
एक पारिवारिक मित्र जाति से मित्तल हैं किंतु अपनी ही बिरादरी के हमारे प्रतिपक्षी के विरुद्ध खड़े होकर हमारी सहायता करते रहे।
खैर छोड़िए। पिछले दिनों हमारे पूरे परिवार का महाकुंभ जाने का कार्यक्रम सुनिश्चित हुआ। कहां होटल मिलेगा। बीमार पत्नी और कई उम्र दराज रिश्तेदारों को कितना पैदल चलना पड़ेगा। यही सब गहन मंथन चल रहा था कि हमारी कंपनी के एक सहयोगी विकास यादव ने कहा कि आप हमारे घर रुकिए। मैं तो हंसने लगा कि बेटा तुम्हें पता नहीं है। हमारी संख्या 15 से भी अधिक है। उस लड़के ने कहा कि कोई बात नहीं सर। मेरे पिता सरकारी जॉब से रिटायर हैं। मैं उन्हें फोन कर दूंगा। सारी तैयारी करके रखेंगे।
तीन दिन तक 15 व्यक्तियों के सोने, ठहरने और नहाने खाने की व्यवस्था करने को कोई आपसे कहे तो जरा दिल पर हाथ रख कर सोचिए। कितने लोगों के द्वारा यह संभव हो पाएगा। किंतु कमाल के उत्साह से और मेहमान नवाजी से उस बच्चे की माताजी, इसी काम के लिए बुलाई गई शादीशुदा बहाने और वह स्वयं हमारी मेहमान नवाजी में लग रहे। इतना ही नहीं शॉर्ट रास्ते कुंभ स्नान करने भी ले गए। अब बताइए इसमें जाति कहां है।
जिंदगी भर में व्यापार के क्षेत्र में रहा और आज उम्र के इस पड़ाव पर इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि व्यापार में जितनी आपकी साफ सुथरी सहायता, सहयोग और साझेदारी व्यापारी वैश्य समाज के साथ हो सकती है और किसी के साथ संभव नहीं है।
अब यदि इस कड़ी में मैं धर्म को भी जोड़ दूं तो मेरे कई सनातनी मित्र बिदक जाएंगे। मैंने पहले भी अपने स्मरण में लिखा है कि जब मेरे पिताजी का जन्म हुआ तो हमारी दादी जी मेरठ के निकट अपने गांव में थी। जन्म के कुछ महा बाद ही वहां उनका देहांत हो गया। दादाजी 5 महीने के मेरे पिताजी को सीने से चिपकाए हुए मेरठ से ट्रेन में गाजियाबाद लौट रहे थे। भूखा प्यासा बच्चा बुरी तरह बिलबिला रहा था। उस जमाने के ट्रेन के इतने लंबे सफर में पता नहीं जीवित भी बचता या नहीं। तभी उनके बराबर में बैठी हुई एक बुर्का नशीन महिला ने पूरे अधिकार से वह बच्चा जो मेरे पिता थे उन्हें दादाजी की गोद से खींच लिया और एक तरफ ओट करके अपने स्तन से बच्चे को दूध पिलाकर वापस दादा जी को सौंप दिया। अब मैं ममता की उसे प्रतिपूर्ति का धर्म देखूं या हृदय।
पिछले दिनों मेरे ही गांव का एक नौजवान अपने 15 साल के बेटे के साथ अलवर के पास बदनाम इलाके मेवात से गुजर रहा था कि तभी उसकी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई। उसके अनुसार गाड़ी मैं ₹600000 और घायल होकर बेहोश हो गए नौजवान की जेब में ₹100000 मौजूद थे। गांव के मेव मुसलमान लड़कों ने दोनों पिता पुत्र को उठाकर अस्पताल पहुंचाया। उनकी परिचर्चा की और होश में आते ही सबसे पहले उनकी जेब के ₹100000 उन्हें लौटा दिए। इतना ही नहीं उनकी दुर्घटनाग्रस्त कार से भी किसी को एक नया पैसा चोरी नहीं करने दिया।
अंतिम तौर पर मेरा मानना है कि इंसान इंसान होता है। इंसान अच्छा या बुरा होता है। किंतु उसका पूर्ण मूल्यांकन उसकी जाति या धर्म में बांधकर नहीं किया जा सकता।
साभार ravindra Kant tyagi जी की फेसबुक वॉल से

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